रविवार, 18 मई 2008

चिता

हमारी कश्ती तो उन्होंने ही डुबो दी
जिनके सहारे उसे, तूफां में उतारी थी;
और साहिल पे खड़े वो मुस्कुराते ही रहे
जिनकी खुशियों के लिए अपना सब कुछ हारी थी।
न जाने हमें लहरों के साथ क्यूँ तन्हा छोड़ गए वो
जिनके वास्ते हमने जिंदगी गुजारी थी।
अब लौट कर जाती भी तो कहाँ और किसकी तलाश में;
हमारी दुनियाँ, हमारे अपनों ने ही उजाड़ी थी।
आज उनकी भी बाहों का सहारा न रहा,
जिनके लिए अपनी हर ख्वाहिशें सँवारी थी।
उनसे जुदा हो के जीने को मजबूर हो गए,
कुछ तो रकीबों की दुआ और कुछ किस्मत भी हमारी थी।
उनके कदम न बढ़ पाये हमारी तरफ़, आज;
और हमने, उनके इंतज़ार में हर गली फूलों से सजाई थी।
दुल्हन तो मैं उनकी बनी बैठी थी पर,
न जाने अश्कों की बारात क्यूँ आई थी।
आहें भर कर भी खामोश ही रही,
गर अश्क छलकते तो उनकी भी रुशवाई थी।
ज़माने की नजरें जब उठने लगी उनपर,
हमने मुस्कुराकर कहा, "कसूर उनका नहीं, यह गलती भी हमारी थी "।
उन्होंने तो बेपनाह मोहब्बत की थी पर,
फितरत में हमारे ही बेवफाई थी।
वो तो चरागे- इश्क रौशन करने आए थे, मगर;
अपने मोहब्बत की 'चिता' हमने अपने हाथों से जलाई थी।

2 टिप्‍पणियां:

samagam rangmandal ने कहा…

जीवन की बेहद दुःखद घटनाए,
अक्सर छोड जाती है,
एक सूखी सी मुस्कान,
एक ढलकता आँसू,
एक रुला देने वाली टीस,
एक खूबसूरत लडकी की.....
एक खूबसूरत कविता.................

अच्छी रचना है,कृपया लगातार लिखते रहे।

समयचक्र ने कहा…

बहुत सुंदर मनभावन है बधाई लिखती रहिये