बुधवार, 21 मई 2008

मुकम्मल सजा

दिनों-दिन बढ़ती बलात्कार की वारदातें थमती ही नहीं। अभी कुछ ही दिनों पहले पड़ोस में रहने वाली छः साल की बच्ची के साथ ऐसी ही नीच कोशिश कि गई। कभी विदेशी पर्यटक को कुछ मनचले अपनी हवस का शिकार बनते हैं, तो कभी ऑटो चालक, कभी गली-मोहल्ले की औरतों के साथ ऐसी घटना घटती है तो कभी छोटी बच्चियों के साथ। छोटे-से-छोटा क़स्बा भी इन घिनौनी वारदातों से अछूता नहीं रहा है। हर रोज न्यूज़ चैनलों पर ऐसे अनगिनत किस्से उजागर किए जाते हैं। जहाँ नई सदी में भारत को नई ऊँचाइयों तक पहुँचने की बातें जोरों पर हैं, वहीं ऐसी घटनाएँ न जाने समाज की कौन-सी घिनौनी तस्वीर से रु-ब- रु कराती हैं।
आख़िर हम किन ऊँचाइयों को छूना चाहते हैं, मानवता के दमन की ? न जाने हमारी मानसिकता का स्तर और कितना गिरेगा ? शायद तब-तक, जब-तक मानवता पुरी तरह मृत्यु-शैया पर दम तोड़ नहीं देती, जब-तक पशु भी हमें घृणा की दृष्टि से न देखने लगें, शायद तब-तक, जब-तक हम मनुष्य होने की गरिमा खो नहीं देते। न जाने और कितना पतन होना बाकी है, न जाने और कितना नीचता का नंगा-नृत्य देखना बाकी है ? इसकी सीमा अभी तय नहीं हो पाई है।
सबसे अहम् बात तो यह है की, आख़िर ऐसे दुष्कर्म करने वाले किन शियासी कठमुल्लों के दम पर खुलेआम घूमते हैं। क्यों कोई कड़ा रुख अख्तियार नहीं करती है प्रशासन। सजा की मियाद भले ही सात वर्ष मुक़र्रर की गई है, परन्तु हकीकत से नजरें नहीं चुराई जा सकतीं के पैसे और पहुँच के दम पर ऐसे अपराधी सीना चौडा कर घूमते हैं। बात सिर्फ़ यहीं तक सीमित नहीं है, कुछ बुद्धिजिविओं के मतानुसार ऐसी घटनाओं में लड़कियों की भी बराबर की भागीदारी होती है, आधुनिकता की होड़ में तंग और भड़काऊ लिबास भी एक महत्वपूर्ण वजह मानी जाती है। तो क्या ऐसी मानसिकता के शिकार लोग यह जवाब दे सकेंगे के, चालीस की उम्र पार कर चुकी औरतें और दो-तीन साल की बच्चियों के साथ यह अनहोनी क्यों होती है, उन्हें क्यों गुजरना पड़ता है इस नर्क से ? जिस मानसिक वेदना से बलात्कार की शिकार हुई महिलाएँ गुजरतीं हैं , उसका अंदाजा भर लगना नामुमकिन है।
बीते दिनों न्यूज़ चैनलों पर एक और ख़बर ने खूब सुर्खियाँ बटोरीं हैं, दिल्ली और लखनऊ में अच्छे-भले मर्दों को किन्नरों में तब्दील करने का व्यवसाय बहुत ही बड़ी तादात पर हो रहा है और फल-फूल भी रहा है। तो क्यों न जैसे को तैसा की तर्ज पर, बलात्कार जैसे संगीन जुर्म करने वाले हैवानों को ऐसी ही मानसिक सजा दी जाए, के फ़िर कोई वहशी, नारी की आबरू को दागदार करने से पहले हजार बार सोचे। मासूम लोगों को मजबूरन किन्नर बनाने से तो यही अच्छा होगा के उन हैवानों को इस श्रेणी में शामिल किया जाए , उनसे पुरूष होने का अधिकार छीन लिया जाए। ताकी फ़िर कोई अपने पुरुषोत्व का ऐसा घिनौना प्रदर्शन न कर सके । क्या उन हैवानों के लिए ऐसी सजा मुकम्मल न होगी ???

1 टिप्पणी:

samagam rangmandal ने कहा…

आपकी चिंता वाजिब है। दिल्ली तो महिलाओ पर होने वाले अपराधो की राजधानी है।वाकई,सजा और गंभीर होना चाहिए।क्योकि जितना सामने आ रहा है,वास्तविकता उससे भी घिनौनी हो सकती है। आपका सरोकार वाजिब है।