बुधवार, 16 जुलाई 2008

तेरी आगोश

एक शाम थोड़ी शरमाई-सी
जब इन फिजाओं में बिखर गई,
तब याद ही न रहा के कब वो शाम
मुझे,तेरी आगोश में भर गई।
तुम्हारी बाँहों की पनाहों में तो
हम, अपनी जिंदगी गुजार दें
वो शाम तो बस कुछ लम्हों में गुजर गई।
उन लम्हों ने मुझे, एक नया अहशास दिया है,
तुम्हारी बाँहों में जिंदगी गुजरेगी ,
मुझे ये विश्वाश दिया है।
तेरी बाँहों में बिखर के
ख़ुद को सँवरता देखा,
तेरे होंठों को छू के
ख़ुद को निखरता देखा,
तब लगा जैसे पुरी कायनात
तेरी बाँहों में सिमट गई,
तब याद ही न रहा के कब वो शाम
मुझे, तेरी आगोश में भर गई,
एक शाम थोड़ी शरमाई-सी
जब इन फिजाओं में बिखर गई।

1 टिप्पणी:

डॉ .अनुराग ने कहा…

तेरी बाँहों में बिखर के
ख़ुद को सँवरता देखा,
तेरे होंठों को छू के
ख़ुद को निखरता देखा,

behad khoobsurat ,ek dam dil ki bat..