बुधवार, 16 जुलाई 2008

तुम्हारी पनाह

हर जख्म हमें तुमसे ही मिले
किसी और की इतनी हैशियत ही कहाँ थी,
अश्क बहे सिर्फ़ तेरे ही लिए
किसी और से इतनी मोहब्बत ही कहाँ थी,
तुम्हारी बाँहों में बीता हर लम्हा, सामने खड़ा था
उन लम्हों से नजरें मिलाने की,
मुझमे अब हिम्मत ही कहाँ थी।
तुम्हें एक पल को भी मेरी याद न आई होगी,
पर मेरे ख्यालों में किसी और की जगह ही कहाँ थी।
तुम्हें पाने की हशरत से,अपना आशियाँ छोड़ दिया हमने
पर, आज जब टूट के बिखरी तो,
तुम्हारी 'पनाह' भी कहाँ थी....

1 टिप्पणी:

Rahul ने कहा…

keep it up. poem me dum to hai, magar i request to pleease correct our words.
rahuldilse.blogspot.com